21-11-92  ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन

कर्मों की गुह्य  गति के ज्ञाता बनो

बेफिक्र बादशाह बनाने वाले बापदादा अपने प्रसन्नचित्त बच्चों प्रति बोले -

आज सर्व खज़ानों के देने वाले बाप सर्व बच्चों के जमा का खाता देख रहे थे। खज़ाने तो सर्व बच्चों को अखुट मिले हैं और सर्व को एक जैसा, एक द्वारा सर्व खज़ाने मिले हैं। एक खज़ाना नहीं लेकिन अनेक खज़ाने प्राप्त हुए हैं। फिर भी जमा का खाता हर एक का अलग-अलग है। कोई ने सर्व खज़ाने अच्छी रीति जमा किये हैं और कइयों ने यथा शक्ति जमा किया है। और जितना ही जमा किया है उतना ही चलन और चेहरे में वह रूहानी नशा दिखाई देता है, जमा करने का रूहानी फखुर अनुभव होता है। रूहानी फखुर की पहली निशानी यही है कि जितना फखुर है उतना बेफिक्र बादशाह की झलक उनके हर कर्म में दिखाई देती है। क्योंकि जहाँ रूहानी फखुर है वहाँ कोई फिक्र नहीं रह सकता। यह फखुर और फिक्र-दोनों एक समय, एक साथ नहीं रह सकते हैं। जैसे रोशनी और अंधकार साथ नहीं रह सकते हैं।

बेफिक्र बादशाह की विशेषता-वह सदा प्रश्नचित्त के बजाए प्रसन्नचित्त रहते हैं। हर कर्म में-स्व के सम्बन्ध में वा सर्व के सम्बन्ध में वा प्रकृति के भी सम्बन्ध में किसी भी समय, किसी भी बात में संकल्प-मात्र भी क्वेश्चन मार्क नहीं होगा कि ‘यह ऐसा क्यों’ वा ‘यह क्या हो रहा है’, ‘ऐसा भी होता है क्या’? प्रसन्नचित्त आत्मा के संकल्प में हर कर्म को करते, देखते, सुनते, सोचते यही रहता है कि जो हो रहा है वह मेरे लिए अच्छा है और सदा अच्छा ही होना है। प्रश्नचित्त आत्मा ‘क्या’, ‘क्यों’, ‘ऐसा’, ‘वैसा’-इस उलझन में स्वयं को बेफिक्र से फिक्र में ले आती है। और बेफिक्र आत्मा बुराई को भी अच्छाई में परिवर्तन कर लेती, इसलिए वह सदा प्रसन्न रहती।

आजकल के साइन्स के साधन से भी जो वेस्ट-खराब माल होता है, उसको परिवर्तन कर अच्छी चीज बना देते हैं। तो प्रसन्नचित्त आत्मा साइलेन्स की शक्ति से-चाहे बात बुरी हो, सम्बन्ध बुरे अनुभव होते हों, लेकिन वह बुराई को अच्छाई में परिवर्तन कर स्वयं में भी धारण करेगी और दूसरे को भी अपनी शुभ भावना के श्रेष्ठ संकल्प से बुराई को बदल अच्छाई धारण करने की शक्ति देगी। कई बच्चे सोचते हैं, कहते हैं कि-’’जब है ही बुरी वा गलत बात, तो गलत को गलत तो कहना ही पड़ेगा ना! वा गलत को गलत तो समझना ही पड़ेगा ना!’’ लेकिन गलत को गलत समझना-यह समझने के हिसाब से समझा। वह राइट और रांग-समझना, जानना अलग बात है लेकिन नॉलेजफुल रूप से जानने वाले समझने के बाद स्वयं में किसी भी आत्मा की बुराई को बुराई के रूप में अपनी बुद्धि में धारण नहीं करेंगे। तो समझना अलग चीज है, समझने तक राइट है। लेकिन स्वयं में वा अपनी चित्त पर, अपनी बुद्धि में, अपनी वृत्ति में, अपनी वाणी में दूसरे की बुराई को बुराई के रूप में धारण नहीं करना है, समाना नहीं है। तो समझना और धारण करना-इसमें अन्तर है।

अपने को बचाने के लिए यह कह देते हैं कि यह है ही रांग, रांग को तो रांग कहना पड़ेगा ना। लेकिन समझदार का काम क्या होता है? समझदार अगर समझता है कि यह बुरी चीज है, तो क्या बुरी समझते हुए अपने पास जमा करेगा? अपने पास अच्छी रीति सम्भाल कर रखेगा? छोड़ देगा ना। या जमा करना ही समझदारी है? यह समझदारी है? और सोचो, अगर बुरी बात वा बुरी चलन को स्वयं में धारण कर लिया, तो क्या आपकी बुद्धि, वृत्ति, वाणी सदा सम्पूर्ण स्वच्छ मानी जायेगी? अगर जरा भी कोई डिफेक्ट वा दाग रह जाता है, किचड़ा रह जाता है-तो डिफेक्ट वाला कभी परफेक्ट नहीं कहला सकता, प्रसन्नचित्त नहीं रह सकता। अगर कोई की बुराई चित्त पर है, तो उसका चित्त सदा प्रसन्नचित्त नहीं रह सकता और चित्त पर धारण की हुई बातें वाणी में जरूर आयेंगी-चाहे एक के आगे वर्णन करे, चाहे अनेक के आगे वर्णन करे।

लेकिन कर्मों की गति का गुह्य रहस्य सदा सामने रखो। अगर किसी की भी बुराई वा गलत बात चित्त के साथ वर्णन करते हो-यह व्यर्थ वर्णन ऐसा ही है जैसे कोई गुम्बज़ में आवाज़ करता है तो वह अपना ही आवाज़ और ही बड़े रूप में बदल अपने पास ही आता है। गुम्बज़ में आवाज करके देखा है? तो अगर किसी की बुराई करने के, गलत को गलत फैलाने के संस्कार हैं, जिसको आप लोग आदत कहते हो, तो आज आप किसकी ग्लानि करते हो और अपने को बड़ा समझदार, गलती से दूर समझकर वर्णन करते हो, लेकिन यह पक्का नियम है अथवा कर्मों की फिलॉसफी है कि आज आपने किसकी ग्लानि की और कल आपकी कोई दुगुनी ग्लानि करेगा। क्योंकि यह गलत बातें इतनी फास्ट गति से फैलती हैं जैसे कोई विशेष बीमारी के जर्म्स (जीवाणु) बहुत जल्दी फैलते हैं और फैलते हुए जर्म्स जिसकी ग्लानि की वहाँ तक पहुँचते जरूर हैं। आपने एक ग्लानि की होगी और वह आपको गलत सिद्ध करने के लिए आपकी दस ग्लानि करेंगे। तो रिजल्ट क्या हुई? कर्मों की गति क्या हुई? लौट कर कहाँ आई? अगर आपको शुभ भावना है उस आत्मा को ठीक करने की, तो गलत बात शुभ भावना के स्वरूप में विशेष निमित्त स्थान पर दे सकते हो, फैलाना रांग है। कई कहते हैं-हमने किसको कहा नहीं, लेकिन वो कह रहे थे तो मैंने भी हाँ में हाँ कर दिया, बोला नहीं। आपके भक्ति-मार्ग के शास्त्रों में भी वर्णन है कि बुरा काम किया नहीं लेकिन देखा भी, साथ भी दिया तो वह पाप है। ‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिलाना-यह भी कर्मों की गति के प्रमाण पाप में भागी बनना है।

वर्तमान समय कर्मों की गति के ज्ञान में बहुत इज़ी हो गये हैं। लेकिन यह छोटे-छोटे सूक्ष्म पाप श्रेष्ठ सम्पूर्ण स्थिति में विघ्न रूप बनते हैं। इज़ी बनने की निशानियां क्या हैं? वह सदा ऐसा ही सोचते-समझते कि यह तो और भी करते हैं, यह तो आजकल चलता ही है। या तो अपने आपको हल्का करने के लिए यही कहेंगे कि-मैंने हंसी में कहा, मेरा भाव नहीं था, ऐसे ही बोल दिया। यह विधि सम्पूर्ण सिद्धि को प्राप्त होने में सूक्ष्म विघ्न बन जाता है। इसलिए ज्ञान तो बहुत मिल गया है, रचता और रचना के ज्ञान को सुनना, वर्णन करना बहुत स्पष्ट हो गया है। लेकिन कर्मों की गुह्य गति का ज्ञान बुद्धि में सदा स्पष्ट नहीं रहता, इसलिए इज़ी हो जाते हैं। कई बच्चों की रूहरिहान करते अपने प्रति भी कम्प्लेन होती है कि जैसे बाप कहते हैं, बाप बच्चों में जो श्रेष्ठ आशाए रखते हैं, जो चाहते हैं, जितना चाहते हैं-उतना नहीं है। इसका कारण क्या है? ये अति सूक्ष्म व्यर्थ कर्म बुद्धि को, मन को ऊंचा अनुभव करने नहीं देते। योग लगाने बैठते हैं लेकिन काफी समय युद्ध में चला जाता, व्यर्थ को मिटाए समर्थ बनने में समय चला जाता है। इसलिए क्या करना चाहिए? जितना ऊंचा बनते हैं, तो ऊंचाई में अटेन्शन भी ऊंचा रखना पड़ता है।

ब्राह्मण जीवन की मौज में रहना है। मौज में रहने का अर्थ यह नहीं कि जो आया वह किया, मस्त रहा। यह अल्पकाल के मुख की मौज वा अल्पकाल के सम्बन्ध-सम्पर्क की मौज सदाकाल की प्रसन्नचित्त स्थिति से भिन्न है। इसी को मौज नहीं समझना। जो आया वह बोला, जो आया वह किया-हम तो मौज में रहते हैं। अल्पकाल के मनमौजी नहीं बनो। सदाकाल की रूहानी मौज में रहो। यही यथार्थ ब्राह्मण जीवन है। मौज में भी रहो और कर्मों की गति के ज्ञाता भी रहो। तब ही जो चाहते हो, जैसे चाहते हो वैसे अनुभव करते रहेंगे। समझा? कर्मों की गुह्य गति के ज्ञाता बनो। फिर खज़ानों के जमा की रिजल्ट सुनायेंगे। अच्छा!

चारों ओर के फिक्र से फारिग बेफिक्र बादशाह आत्माओं को, सदा प्रसन्नचित्त विशेष आत्माओं को, सदा स्वयं प्रति और सर्व आत्माओं प्रति श्रेष्ठ परिवर्तन शक्ति को कर्म में लाने वाले कर्मयोगी आत्माओं को, सदा रचता-रचना के ज्ञाता और कर्म-फिलॉसोफी के भी ज्ञाता-ऐसे ज्ञान-स्वरूप आत्माओं को बापदादा का याद, प्यार और नमस्ते।

दादियों के साथ मुलाकात

वर्तमान समय किस बात की आवश्यकता है? कर्मों की गुह्य गति का ज्ञान मर्ज हो गया है, इसलिए अलबेलापन है। पुरुषार्थी भी हैं लेकिन पुरूषार्थ में अलबेलापन आ जाता है। इसलिए अभी इसकी आवश्यकता है। बापदादा सभी की रिजल्ट को देखते हैं। जो चल रहा है वो अच्छा है। लेकिन अभी अच्छे ते अच्छा बनना ही है। बिज़ी रहना पड़ता है ना। ज्यादा समय बिजी किसमें रहना पड़ता है? किस बात में ज्यादा समय देना पड़ता है? चाहे आप लोगों की अपनी स्थिति न्यारी और प्यारी है, लेकिन समय तो देना पड़ता है। तो यही समय पावरफुल-शक्तिशाली लाइट-हाउस, माइट-हाउस वायब्रेशन्स फैलाने में जाये तो क्या हो जायेगा? संगठित रूप में यही वातावरण हो, और कोई बात ही नहीं हो-तो क्या वायब्रेशन विश्व में या प्रकृति तक पहुँचेगा? अभी तो सभी लोग इन्तजार कर रहे हैं कि कब हमारे रचता वा मास्टर रचता सम्पन्न या सम्पूर्ण बन हम लोगों से अपनी स्वागत कराते। प्रकृति भी तो स्वागत करेगी ना। तो वह सफलता की माला से स्वागत करे-वो दिन आना ही है। जब सफलता के बाजे बजेंगे तब प्रत्यक्षता के बाजे बजेंगे। बजने तो हैं ही ना। अच्छा!

दादी चन्द्रमणि जी सेवा पर जाने की छुट्टी ले रही हैं

आलराउन्ड बनना ही श्रेष्ठ सेवा है। अच्छा है, चक्कर लगाते रहो। चक्कर लगाने का पार्ट बच्चों का ही है। बाप तो अव्यक्त रूप में लगा सकते हैं। साकार रूप में भी चक्कर लगाने का पार्ट बाप का नहीं रहा, बच्चों का ही था। अच्छा!

अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात

ग्रुप नं. 1

विजयी माला में आने के लिये तीव्र पुरुषार्थी बनो

सदा तीव्र पुरुषार्थी आत्माए हैं-ऐसे अनुभव करते हो? जब ब्राह्मण बने तो पुरुषार्थी तो हैं ही। तीव्र पुरुषार्थी हैं वा सिर्फ पुरुषार्थी हैं? सुनने और सुनाने वाले को पुरुषार्थी कहेंगे या तीव्र पुरुषार्थी कहेंगे? सुनना और सुनाना, उसके बाद क्या होता है? तीव्र पुरुषार्थी किसको कहेंगे-सुनने वाले को या बनने वाले को? जो माला का 16108वां नम्बर है वह भी सुनता और सुनाता तो है ही। नहीं तो माला में कैसे आयेगा। लेकिन 108 की माला में कौन आयेंगे? 108 की माला का नाम है विजयी माला। 16000 वाली माला का नाम विजयी माला नहीं है। तो सुनना और सुनाना-यह मैजारिटी करते हैं। लेकिन सुना और बना-इसको कहा जाता है तीव्र पुरुषार्थी। तीव्र पुरुषार्थी 108 हैं और पुरुषार्थी 16108 हैं। तो अपने आपको चेक करो कि तीव्र पुरुषार्थी हैं या पुरुषार्थी हैं? जो हैं, जैसा हैं-वह मैजारिटी अपने आपको जान सकते हैं। कोई थोड़े ऐसे हैं जो अपने को नहीं भी जानते हैं, रांग को राईट समझकर भी चल जाते हैं। मैजारिटी अपने मन में अपने आपको सत्य जानते हैं कि-मैं कौन हूँ? इसलिए सदा अपने को देखो, दूसरे को नहीं।

अपने पुरूषार्थ को चेक करो और तीव्र पुरूषार्थ में चेंज करो। नहीं तो फाइनल समय आने पर चेंज नहीं कर सकेंगे। उस समय पढ़ाई का समय समाप्त होने पर, इम्तहान के समय पढ़ाई का चांस नहीं मिलता। अगर कोई स्टूडेन्ट समझे-एक प्रश्न का उत्तर नहीं आता है, किताब से पढ़कर उत्तर दे दें-तो राइट होगा या रांग होगा? तो उस समय अपने को चेंज नहीं कर सकेंगे। जो है, जैसा है, वैसे ही प्रालब्ध प्राप्त कर लेंगे। लेकिन अभी चांस है। अभी टू लेट (Too Late) का बोर्ड नहीं लगा है, लेट का लगा है। लेट हो गये लेकिन टू लेट नहीं। इसलिए फिर भी मार्जिन है। कई स्टूडेन्ट 6 मास में भी पास विद् ऑनर हो जाते हैं अगर सही पुरूषार्थ करते हैं तो। लेकिन समय समाप्त होने के बाद कुछ नहीं कर सकते। बाप भी रहम करना चाहे तो भी नहीं कर सकते। चलो, यह अच्छा है, इसको मार्क्स दे दो-यह बाप कर सकता है? इसलिए अभी से चेक करो और चेंज करो। अलबेलापन छोड़ दो। ठीक हैं, चल रहे हैं, पहुँच जायेंगे-यह अलबेलापन है। अलबेले को इस समय तो मौज लगती है। जो अल-बेला होता है उसे कोई फिक्र नहीं होता है, वह आराम को ही सब-कुछ समझता है। तो अलबेलापन नहीं रखना। सदा अलर्ट! पाण्डव सेना हो ना। सेना अलबेली रहती है या अलर्ट रहती है? सेना माना अलर्ट, सावधान, खबरदार रहने वाले। अलबेला रहने वाले को सेना का सैनिक नहीं कहा जायेगा। तो अलबेलापन नहीं, अटेन्शन! लेकिन अटेन्शन भी नेचुरल विधि बन जाये। कई अटे-न्शन का भी टेन्शन रखते हैं। टेन्शन की लाइफ सदा तो नहीं चल सकती। टेन्शन की लाइफ थोड़ा समय चलेगी, नेचुरल नहीं चलेगी। तो अटेन्शन रखना है लेकिन ‘नेचुरल अटेन्शन’ आदत बन जाये। जैसे विस्मृति की आदत बन गई थी ना। नहीं चाहते भी हो जाता है। तो यह आदत बन गई ना, नेचुरल हो गई ना। ऐसे स्मृतिस्वरूप रहने की आदत हो जाये, अटेन्शन की आदत हो जाये। इसलिए कहा जाता है आदत से मनुष्यात्मा मजबूर हो जाती है। न चाहते भी हो जाता है-इसको कहते हैं मजबूर। तो ऐसे तीव्र पुरू-षार्था बने हो? तीव्र पुरुषार्थी अर्थात् विजयी। तभी माला में आ सकते हैं।

बहुतकाल का अभ्यास चाहिए। सदैव अलर्ट माना सदा एवररेडी! आपको क्या निश्चय है-विनाश के समय तक रहेंगे या पहले भी जा सकते हैं? पहले भी जा सकते हैं ना। इसलिए एवररेडी। विनाश आपका इन्तजार करे, आप विनाश का इन्तजार नहीं करो। वह रचना है, आप रचता हो। सदा एवररेडी। क्या समझा? अटेन्शन रखना। जो भी कमी महसूस हो उसे बहुत जल्दी से जल्दी समाप्त करो। सम्पन्न बनना अर्थात् कमजोरी को खत्म करना। ऐसे नहीं-यहाँ आये तो यहाँ के, वहाँ गये तो वहाँ के। सभी तीव्र पुरुषार्थी बनकर जाना। अच्छा!

ग्रुप नं. 2

सदा सेफ रहने का स्थान-दिलाराम बाप का दिलतख्त

सदैव अपने को दिलाराम बाप की दिल में रहने वाले अनुभव करते हो? दिलाराम की दिल तख्त है ना। तो दिलतख्तनशीन आत्माए हैं-ऐसे अपने को समझते हो? सदा तख्त पर रहते हो या कभी उतरते, कभी चढ़ते हो? अगर किसको तख्त मिल जाये तो तख्त कोई छोड़ेगा? यह तो श्रेष्ठ भाग्य है जो भगवान के दिलतख्तनशीन बनने का भाग्य मिला है। इससे बड़ा भाग्य कोई हो सकता है? ऐसे प्राप्त हुए श्रेष्ठ भाग्य को भूल तो नहीं जाते हो? तो सदैव तख्तनशीन आत्माए हैं-इस स्मृति में रहो। जो दिल में समाया हुआ रहेगा, परमात्म-दिल में समाए हुए को और कोई हिला सकता है? दिलतख्तनशीन आत्माए सदा सेफ हैं। माया के तूफान से भी और प्रकृति के तूफान से भी-दोनों तूफान से सेफ। न माया की हलचल हिला सकती है और न प्रकृति की हलचल हिला सकती है। ऐसे अचल हो? या कभी-कभी अचल, कभी-कभी हिलते हो? यादगार अचलघर है। चंचल-घर तो बना ही नहीं। अनेक बार अचल बने हो। अभी भी अचल हो ना। हलचल में नुकसान होता है और अचल में फायदा है। कोई चीज हिलती रहे तो टूट जायेगी ना।

सदा यह याद रखो कि हम दिलाराम के दिलतख्तनशीन हैं। यह स्मृति ही तिलक है। तिलक है तो तख्तनशीन भी हैं। इसीलिए जब तख्त पर बैठते हैं तो पहले राज्य-तिलक देते हैं। तो यह स्मृति का तिलक ही राज्य-तिलक है। तो तिलक भी लगा हुआ है। या मिट जाता है कभी? तिलक कभी आधा रह जाता है और कभी मिट भी जाता है-ऐसे तो नहीं। यह अविनाशी तिलक है, स्थूल तिलक नहीं है। जो तख्तनशीन होता है, उसको कितनी खुशी होती है, कितना नशा होता है! आजकल के नेताओं को तख्त नहीं मिलता, कुर्सी मिलती है। तो भी कितना नशा रहता है-हमारी पार्टी का राज्य है! वो तो कुर्सी है, आपका तो तख्त है। तो स्मृति नशा दिलाती है। अगर स्मृति नहीं है तो नशा भी नहीं है। तिलक है तो तख्त है। तो चेक करो कि स्मृति का तिलक सदा लगा हुआ है अर्थात् सदा स्मृतिस्वरूप हैं?

दिल्ली वाले क्या कर रहे हो? राजधानी की क्या तैयारी कर रहे हो? राजधानी के लिये कितनी तैयारी चाहिए! प्रकृति भी तैयार चाहिए, राज्य करने वाले भी तैयार चाहिए। तो क्या तैयारी की है? आधी दिल्ली को तैयार किया है? दिल्ली की संख्या कितनी है? (85 लाख) और ब्राह्मण कितने हैं? (5 हजार) यह तो कुछ भी नहीं हुआ। तो तैयार कब करेंगे? जब विनाश का घण्टा बजेगा तब? चैरिटी बिगिन्स एट होम (Charity Begins At Home)! तो दिल्ली वालों को तैयार करो। पहले-पहले आदि की संख्या भी 9 लाख तो है ना। वो भी तैयार नहीं की, अभी तो हजार में है। तो क्या करना पड़ेगा? बनी-बनायी राजधानी में आयेंगे कि तैयार भी करेंगे? जो करेगा सो पायेगा। ऐसे नहीं समझना-चलो, राजधानी तैयार होगी, आ जायेंगे। नहीं, यह नियम है-जो करता है वो पाता है। तो करना पड़ेगा ना। यह तो बहुत स्लो (धीमी) गति है। तीव्र गति कब होगी? (5 साल में) 5 साल में विनाश हो जाये तो? तैयारी न हो और विनाश हो जाये तो क्या करेंगे? (आबादी बढ़ती जाती है) यह तो खुशखबरी है। आपकी सेवा में भी वृद्धि होती जाती है। सेवाधारियों को सेवा का चांस मिल रहा है। जानवर बढ़ते जावें तो शिकारी को खुशी होगी ना। तो दिल्ली वालों ने अपना काम पूरा नहीं किया है, अभी बहुत रहा हुआ है। अभी फास्ट गति करो।

एक को दस बनाने हैं। 12 मास में दस तो बना सकते हो। एक मास में एक-यह तो सहज है। आप लोगों ने ‘हाँ’ कहा, तो फोटो निकल रहा है, आटोमेटिक कैमरा में निकल रहा है। दृढ़ संकल्प का हाथ उठाना है। दृढ़ संकल्प का हाथ उठाया तो हुआ ही पड़ा है। दिल्ली वालों को तो सभी को निमन्त्रण देकर बुलाना है। हलचल की धरनी पर तो राज्य नहीं करना है, स्वर्ण धरनी पर राज्य करना है। तो बनाना पड़ेगा ना। अभी फास्ट गति करो। कभी भी यह नहीं सोचो कि सुनने वाले नहीं मिलते हैं। सुनने वाले तो बहुत हैं। थोड़ा पुरूषार्थ करो। अपनी स्थिति रूहानी आकर्षणमय बनाओ। जब चुम्बक अपनी तरफ खींच सकता है, तो क्या आपकी रूहानी शक्ति आत्माओं को नहीं खींच सकती? तो रूहानी आकर्षण करने वाले चुम्बक बनो। चुम्बक को कहना नहीं पड़ता-सुई आओ। स्वत: ही खींचती है। रूहानी आकर्षणमय स्थिति स्वयं आकर्षित करती है, मेहनत नहीं करनी पड़ती। ब्राह्मण जीवन का श्रेष्ठ कर्म ‘सेवा’ है ना। और तो सब निमित्त-मात्र है लेकिन ब्राह्मण जीवन का श्रेष्ठ कर्म ‘सेवा’ है। सेवाधारी हो ना। अचल बनो और अचल बनाओ। सदा सन्तुष्ट। प्रोग्राम करो। यह बहुत अच्छा। प्रोग्राम अर्थात् प्रोग्रेस।

ग्रुप नं. 3

सहजयोग का आधार-एक की याद

सदा सहज पुरूषार्थ की विधि क्या है? सहज पुरूषार्थ का अनुभव है? क्या विधि अपनाई जो सहज हो गया? ‘एक’ को याद करना-यह है सहज विधि। क्योंकि ‘अनेकों’ को याद करना मुश्किल होता है। लेकिन एक को याद करना तो सहज है। सहजयोग का अर्थ ही है-’एक’ को याद करना। एक बाप, दूसरा न कोई। ऐसा है? या बाप के साथ और भी कोई है? कभी-कभी देह-अभिमान में आ जाते हो। जब ‘मेरा शरीर’ है तो याद आता है, लेकिन मेरा है ही नहीं तो याद नहीं आता। तो तन-मन-धन तेरा है या मेरा है? जब मेरा है ही नहीं तो याद क्या आता? देहभान में आना, बॉडी-कॉन्सेस में आना अर्थात् मेरा शरीर है। लेकिन सदैव यह याद रखो कि मेरा नहीं, बाप का है, सेवा अर्थ बाप ने ट्रस्टी बनाया है। नहीं तो सेवा कैसे करेंगे? शरीर तो चाहिए ना। लेकिन मेरा नहीं, ट्रस्टी हैं। मेरापन है तो गृहस्थी और तेरापन है तो ट्रस्टी। ट्रस्टी अर्थात् डबल लाइट। गृहस्थी को मेरे-मेरे का कितना बोझ होता है-मेरा घर, मेरे बच्चे, मेरे पोत्रे.....! लम्बी लिस्ट होती है। यह बोझ है।

ट्रस्टी बन गये तो बोझ खत्म। ऐसे बने हो? या बदलते रहते हो? जब है ही कोई नहीं, एक बाप दूसरा न कोई-तो क्या याद आयेगा? सहज विधि क्या हुई? ‘एक’ को याद करना, ‘एक’ में सब-कुछ अनुभव करना। इसलिए कहते हो ना कि बाप ही संसार है। संसार में सब-कुछ होता है ना। जब संसार बाप हो गया तो ‘एक’ की याद सहज हो गई ना। मेहनत का काम तो नहीं है ना। आधा कल्प मेहनत की। ढूंढ़ना, भटकना-यही किया ना। तो मेहनत करनी पड़ी ना। अभी बापदादा मेहनत से छुड़ाते हैं। अगर कभी किसी को भी मेहनत करनी पड़ती है, तो उसका कारण है अपनी कमजोरी। कमजोर को सहज काम भी मुश्किल लगता है और जो बहादुर होता है उसको मुश्किल काम भी सहज लगता है। कमजोरी मुश्किल बना देती है, है सहज। तो बाप क्या चाहते हैं? सदा सहजयोगी बनकर चलो।

सदा सहजयोगी अर्थात् सदा खुश रहने वाले। सहजयोगी जीवन अर्थात् ब्राह्मण जीवन। पक्के ब्राह्मण हो ना। सबसे भाग्यवान आत्माए हैं-यह खुशी रहती है? आप जैसा खुश और कोई संसार में होगा? तो सदा क्या गीत गाते हो? ‘‘वाह मेरा श्रेष्ठ भाग्य!’’-यह गीत गाना सभी को आता है। क्योंकि मन का गीत है ना। तो कोई भी गा सकता है और सदा गा सकता है। ‘‘वाह मेरा भाग्य!’’ कहने से भाग्यविधाता बाप स्वत: ही याद आता है। तो भाग्य और भाग्यविधाता-इसी को ही कहा जाता है सहज याद। सहज-सहज करते मंजिल पर पहुँच जायेंगे।

अभी आन्ध्रा वालों को संख्या बढ़ानी है। हमजिन्स को जगायेंगे तो दुआए मिलेंगी। भटकती हुई आत्माओं को रास्ता दिखाना-यह बड़ा पुण्य का काम है। आन्ध्रा की विशेषता क्या है? एज्युकेटेड (Educated-शिक्षित) लोग बहुत होते हैं। तो ऐसे एज्युकेटेड लोग निकालो जो सेवा में आगे बढ़ें। ऐसा कोई आन्ध्रा में निमित्त बनाओ जो अनेकों को जगाए।

ग्रुप नं. 4

परमात्म-प्यार प्राप्त करना है तो न्यारे बनो

सदा अपने को रूहानी रूहे गुलाब समझते हो? रूहानी रूहे गुलाब अर्थात् सदा रूहानियत की खुशबू से सम्पन्न आत्मा। जो रूहे गुलाब होता है उसका काम है सदा खुशबू देना, खुशबू फैलाना। गुलाब का पुष्प जितना खुशबूदार होता है उतने कांटे भी होते हैं, लेकिन कांटों के प्रभाव में नहीं आता। कभी कांटों के कारण गुलाब का पुष्प बिगड़ नहीं जाता है, सदा कायम रहता है। कांटे हैं लेकिन कांटों से न्यारा और सभी को प्यारा लगता है। स्वयं न्यारा है तब प्यारा लगता है। अगर खुद ही कांटों के प्रभाव में आ जाए तो उसे कोई हाथ भी नहीं लगायेगा। तो रूहानी गुलाब की विशेषता है, किसी भी प्रकार के कांटे हों-छोटे हों या बड़े हों, हल्के हों या तेज हों-लेकिन हो सदा न्यारा और बाप का प्यारा। प्यारा बनने के लिए क्या करना पड़े? न्यारापन प्यारा बनाता है। अगर किसी भी प्रभाव में आ गये तो न बाप के प्यारे और न ब्राह्मण परिवार के। अगर सच्चा प्यार प्राप्त करना है तो उसके लिए न्यारा बनो-सभी हद की बातों से, अपनी देह से भी न्यारा। जो अपनी देह से न्यारा बन सकता है वही सबसे न्यारा बन सकता है।

कई सोचते हैं-हमको इतना प्यार नहीं मिलता, जितना मिलना चाहिए। क्यों नहीं मिलता? क्योंकि न्यारे नहीं हैं। नहीं तो परमात्म-प्यार अखुट है, अटल है, इतना है जो सर्व को प्राप्त हो सकता है। लेकिन परमात्म-प्यार प्राप्त करने की विधि है-न्यारा बनना। विधि नहीं आती तो सिद्धि भी नहीं मिलती। कई बच्चे कहते हैं-बाबा से मिलन मनाना चाहते हैं लेकिन अनुभव नहीं होता है, रूहरि-हान करते हैं लेकिन जवाब नहीं मिलता है। कारण क्या है? पहले न्यारे बने जो प्यार मिले? प्यार प्राप्त करने का फाउन्डेशन अगर पक्का है, तो प्राप्ति की मंजिल प्राप्त न हो-यह हो ही नहीं सकता। क्योंकि बाप की गारन्टी है। गारन्टी है-एक बात आप करो, बाकी सब मैं करूँ। एक बात-मुझे दिल से याद करो, मतलब से नहीं। कोई विघ्न आयेगा तो 4 घण्टा योग लगायेंगे और विघ्न खत्म हुआ तो याद भी खत्म हो गई। तो यह मतलब की याद हुई ना। इच्छा पूर्ण करने के लिए याद नहीं, अच्छा बनकर याद करना है। यह काम हो जाये, इसके लिए याद करूँ-ऐसे नहीं। पात्र बन परमात्म-प्यार का अनुभव कर सकते हो।

रूहानी गुलाब अर्थात् परमात्म-प्यार की पात्र आत्माए। परमात्म-प्यार के आगे आत्माओं का प्यार क्या है? कुछ भी नहीं। जब परमात्म-प्यार के अनुभवी बनते हो तो दिल से क्या निकलता है? कौनसा गीत गाते हो? पा लिया, और कुछ नहीं रहा। ऐसे प्राप्ति के अधिकारी आत्मा बनो। पात्र की निशानी है-प्राप्ति होना। अगर प्राप्ति नहीं होती, कम होती है-तो समझो पात्र कम हैं। क्योंकि देने वाला तो दाता है और अखुट खज़ाना है। तो क्यों नहीं मिलेगा? पात्र योग्य है तो प्राप्ति भी सब हैं। सदा बाबा मेरा है तो प्राप्ति भी सदा होगी ना। कभी भी, किसी भी हद के प्रभाव से न्यारा रहना ही है, कभी प्रभाव में नहीं आना। फिर बार-बार पात्र बनने का अभ्यास माना मेहनत करनी पड़ती है। इसलिये हद के प्रभाव में न आकर सदा बेहद की प्राप्तियों में मगन रहो। सदा चेक करो कि-रूहानी गुलाब सदा रूहानियत की खुशबू में रहता हूँ, न्यारा रहता हूँ, प्यार का पात्र बनता हूँ? क्योंकि आत्माओं द्वारा प्राप्ति तो 63 जन्म कर ली, उससे रिजल्ट क्या निकली? गंवा लिया ना। अभी पाने का समय है । हद की प्राप्तियां अर्थात् गंवाना, बेहद की प्राप्ति अर्थात् जमा होना। अच्छा!

ग्रुप नं. 5

स्वराज्य का तिलक ही भविष्य के राजतिलक का आधार है

सभी अपने को विजयी रत्न अनुभव करते हो? विजय प्राप्त करना सहज लगता है या मुश्किल लगता है? मुश्किल है या मुश्किल बना देते हो, क्या कहेंगे? है सहज लेकिन मुश्किल बना देते हो। जब माया कमजोर बना देती है तो मुश्किल लगता है और बाप का साथ होता है तो सहज होता है। क्योंकि जो मुश्किल चीज होती है वह सदा ही मुश्किल लगनी चाहिए ना। कभी सहज, कभी मुश्किल-क्यों? सदा विजय का नशा स्मृति में रहे। क्योंकि विजय आप सब ब्राह्मण आत्माओं का जन्मसिद्ध अधिकार है। तो जन्मसिद्ध अधिकार प्राप्त करना मुश्किल होता है या सहज होता है? कितनी बार विजयी बने हो! तो कल्प-कल्प की विजयी आत्माओं के लिए फिर से विजयी बनना मुश्किल होता है क्या? अमृतवेले सदा अपने मस्तक में विजय का तिलक अर्थात् स्मृति का तिलक लगाओ। भक्ति-मार्ग में तिलक लगाते हैं ना। भक्ति की निशानी भी तिलक है और सुहाग की निशानी भी तिलक है। राज्य प्राप्त करने की निशानी भी राजतिलक होता है। कभी भी कोई शुभ कार्य में सफलता प्राप्त करने चाहते हैं तो जाने के पहले तिलक देते हैं। तो आपको राज्य प्राप्ति का राज्य-तिलक भी है और सदा श्रेष्ठ कार्य और सफलता है, इसलिए भी सदा तिलक है। सदा बाप के साथ का सुहाग है, इसलिए भी तिलक है। तो अविनाशी तिलक है। कभी मिट तो नहीं जाता है? जब अविनाशी बाप मिला तो अविनाशी बाप द्वारा तिलक भी अविनाशी मिल गया। सुनाया था ना-अभी स्वराज्य का तिलक है और भविष्य में विश्व के राज्य का तिलक है। स्वराज्य मिला है कि मिलना है? कभी गंवा भी देते हो? सदैव फलक से कहो कि हम कल्प-कल्प के अधिकारी हैं ही!

इस समय स्वराज्य अधिकारी और भविष्य में हैं विश्व-राज्य अधिकारी और फिर द्वापर-कलियुग में पूजनीय के अधिकारी बनेंगे, इसलिए पूज्य अधिकारी। आप सबकी पूजा होगी। अपने मन्दिर देखे हैं? डबल विदेशियों का मन्दिर है? दिलवाला मन्दिर में आप बैठे हो? क्योंकि जो ब्राह्मण बनते हैं वो ब्राह्मण देवता बनेंगे और देवताओं की पूजा होगी। अगर पक्के ब्राह्मण हो तो पक्का ही पूजन होगा। कच्चे ब्राह्मण हैं तो शायद पूजन होगा। डबल विदेशी सभी पक्के हो? पक्के थे, पक्के हैं और पक्के रहेंगे-ऐसे है ना। अच्छा! सभी पक्के हो? अनुभवी बन गये ना। अनुभवी कभी धोखा नहीं खाते। देखने वाले, सुनने वाले धोखा खा सकते हैं लेकिन अनुभव की अथॉरिटी वाले धोखा नहीं खा सकते। हर कदम में नया-नया अनुभव करते रहते हो। रोज नया अनुभव। उमंग-उत्साह वाले हो ना। उमंग-उत्साह-यही उड़ती कला के पंख हैं। कभी उमंग-उत्साह कम हुआ अर्थात् पंख कमजोर हो गये। अच्छा, जो अभी तक किसी ने नहीं किया हो वह करके दिखाओ, तब कहेंगे नवीनता। सेन्टर खोलना, फंक्शन करना-यह तो सभी करते हैं। जैसे बाप को रहम आता है कि भटकती आत्माओं को ठिकाना दें, तो बच्चों के मन में भी यह रहम आना चाहिए। तो अभी ऐसा कोई नया साधन निकालो जिससे अनेक आत्माओं को सन्देश मिल जाये।